100 साल पहले तीन मई 1919 की शाम चीन के कुछ छात्र एक खाली लेक्चर हॉल में इकट्ठा हुए। ये वो समय था जब प्रथम विश्व युद्ध खत्म हो चुका था, और विजेता शक्तियां वर्साय में संधि के मकसद से इकट्ठा हुई थीं।
चीन जिसने मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध में योगदान दिया था, उम्मीद कर रहा था कि इस बैठक में उसे अगर बराबर की हिस्सेदारी नहीं मिली तो कम से कम उसकी आवाज तो सुनी ही जाएगी। लेकिन बातचीत के दौरान फ्रांस, ब्रिटेन, और अमेरिका ने गुप्त समझौते के तहत चीन की सीमा का कुछ हिस्सा जापान को सौंप दिया।
जब दो मई की सुबह ये खबर चीन पहुंची, तो रिक्शा चालक से लेकर मंत्री तक सभी चीनी नागरिक बहुत निराश हुए। खासकर युवाओं को बहुत निराशा हुई। उनके लिए ये ऐसा था जैसे उन्होंने अपने शरीर का कोई अंग खो दिया हो।
ये वक्त था जब बीजिंग में जुनून चरम पर था। इस दौरान पूरे देश से छात्रों ने यूरोप में टेलीग्राम भेजे। अपने प्रतिनिधिमंडल से वापस लौट आने के लिए कहा।
एक युवा व्यक्ति तो इस घटनाक्रम से इस कदर निराश हुआ कि चाकू निकाल कर हवा में लहराने लगा। उस व्यक्ति ने चिल्लाते हुए कहा कि वो अपने देश की बुजदिली देखने से अच्छा मर जाना पसंद करेगा।
इस समय उस हॉल में तनाव का महौल था और अगले दिन यानी चार मई को इस समझौते के विरोध में मार्च निकालने का फैसला लिया गया। हालांकि इसकी तारीख पहले से तय थी, लेकिन उस हॉल में जो हुआ उसके बाद ये छात्र और इंतजार नहीं कर सके।
इस समय जो आंदोलन शुरू हुआ वो अपने रुप में नया था।इस दौरान चीनी छात्र चीन के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे।
1910 के आते-आते कई तरह की पत्र-पत्रिकाएं छपने लगी थीं। इनमें नई ऊर्जा को साफ तौर पर देखा जा सकता था। इनके नाम से ही काफी कुछ झलकता था। जैसे न्यू यूथ, न्यू टाइड, न्यू लाइफ आदि।
ये नया सांस्कृतिक आंदोलन विचारों के एक बवंडर की तरह था। इसने अतीत को ठुकरा दिया और भविष्य के लिए लड़ने लगा।
चार मई 1919 को शुरु हुआ ये आंदोलन चीनी इतिहास में अमर हो गया। इसने पुराने विचारों को मानने से मना कर दिया और राष्ट्रवाद की मशाल को थाम लिया।
इस दौरान लोगों ने राजनीतिक आजादी की मांग की, कुछ ने राजशाही के विरोध में खड़े होने का फैसला किया।
आगे चलकर जब चीन में पहली बार मार्क्सवादियों का उदय हुआ तो इस चार मई के आंदोलन ने उन्हें ताकत दी। जुलाई 1921 को दर्जन भर मार्क्सवादी इकट्ठे हुए उनमें ही एक नाम माओ का था। माओ का दुनिया को देखने का नजरिया भी मई आंदोलन से प्रभावित था।
माओ का मानना था कि उनके देश को संगठित राजनीतिक विचारधारा की जरूरत है। माओ ने अपनी पहले की अराजकतावादी सोच से किनारा कर लिया और मार्क्स-लेनिन की विचारधारा को अपना लिया।
इस तरह चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी की जड़ें भी चार मई के उसी आंदोलन में खोजी जा सकती हैं। पार्टी का आधिकारिक इतिहास भी कुछ ऐसी ही कहानी बयान करता है।
पार्टी के मुताबिक चार मई की आत्मा का असली एहसास 1949 में हुआ, जब कम्यूनिस्टों ने गृह युद्ध के बाद जीत की घोषणा कर दी। इसके बाद देश ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ के रूप में स्थापित हुआ।
80 के दशक में चीनियों के सामने फिर से वही सवाल खड़ा हुआ। हम चीन को आधुनिक कैसे बनाएं? ताकतवर कैसे बनाएं? कुछ बुद्धिजीवियों ने इसे चीनी इतिहास की दूसरी सबसे बड़ी सांस्कृतिक बहस बताया। यहां चीन के सामने लंबे समय से चली आ रही पार्टी की विचारधारा पर सवाल था।
इस नई बहस में कुछ पश्चिमी विचारों ने ईंधन का काम किया। देश भर में फिर से छात्र एकत्र हुए बहसे शुरू हुईं। 1989 का बसंत आते-आते लोकतंत्र के बैनर लहराने लगे। इस दौरान कुछ छात्रों ने ‘नई चार मई’ के नारे भी दिए।
ये वो दौर था जब चीन के ऊपर अर्थव्यवस्था खोलने का दबाव बनने लगा। साथ ही एक पार्टी के शासन की जगह लोकतंत्र की मांग भी होने लगी।
एक बार फिर चार मई आई। ये चार मई 1989 था। जब छात्रों का समूह थिनामेन स्कवायर पर इकट्ठा हुआ। इस दौरान नया ‘मार्च मैनिफेस्टो’ जारी किया गया।
हजारों लाखों लोग नए चार मई आंदोलन के लिए तैयार थे। लेकिन इस बार ये आंदोलन कम्युनिस्ट पार्टी को मंजूर नहीं था। चार जून को आंदोलन को दबाने के लिए सेना को छोड़ दिया गया। टैंक सड़कों पर थे। इस तरह आंदोलन को बेदर्दी से कुचल दिया गया। राज्य ने अपने विचार थोप दिए।
लोकतंत्र की मांग दबा दी गई। पार्टी की ओर से इसे पश्चिमी ताकतों के प्रभाव के तौर पर प्रस्तुत किया गया।
तब से आज तक चीन में लोकतंत्र की मांग को सबसे बड़े अपराध के तौर पर देखा जाता है। सौ साल पहले विचारों से परिपूर्ण चीनी युवाओं ने एकजुट होकर देश की अंतरात्मा को हिला दिया था। लेकिन आज उनकी विरासत मिटी जा रही है।