- देश का संपन्न तबका हमेशा से 'हाई-टेक' चिकित्सा देखभाल पर ज़ोर देता रहा है, लेकिन अब समाज के कमज़ोर तबके ने भी इस पर ज़ोर देना शुरू कर दिया है, जबकि इन सेवाओं के भुगतान के लिये उसके पास संसाधनों का अभाव है।
- आयुष्मान भारत जैसी वृहतकाय स्वास्थ्य बीमा योजनाएँ, जो निजी अस्पताल में भर्ती होने के लिये गरीबों को बीमा प्रदान करने पर ज़ोर देती हैं तथाकथित उच्च-गुणवत्ता की लोकप्रिय मांग से ही आंशिक रूप से प्रभावित होकर शुरू की गई हैं। जबकि सच्चाई यह है कि दरिद्रता की स्थिति उत्पन्न करने वाले अधिकांश खर्चों में बुनियादी चिकित्सा देखभाल शामिल हैं और इन्हें वर्तमान स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में व्याप्त विकृति का ही साक्ष्य माना जा सकता है।
- इस तरह की चिकित्सा ने जिस तरह से जनशक्ति और इसकी गतिशीलता को प्रभावित किया है, उस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। भारत की स्वास्थ्य प्रणाली में प्रमुख किरदार के रूप में एक 'सामाजिक चिकित्सक' (Social Physician) की आवश्यकता पर प्रकाश डालने वाले ऐतिहासिक भोरे समिति की रिपोर्ट (1946) के बाद 37 वर्षों का समय लग गया और तब अंततः एक अलग विशेषज्ञता के रूप में ‘पारिवारिक चिकित्सा’ (Family Medicine) की पहचान की गई और इसके बाद फिर डेढ़ दशक गुज़र जाने के पश्चात इस पारिवारिक चिकित्सा में स्नातकोत्तर रेजीडेंसी पाठ्यक्रम की पेशकश की गई।
प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल का प्रतिनिधित्व
- देश में चिकित्सकों का प्रतिनिधित्व करने वाला सर्वोच्च पेशेवर निकाय भारतीय चिकित्सा परिषद (Medical Council of India- MCI) स्वयं विशेषज्ञों के प्रभुत्व में है जहाँ प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल का कोई प्रतिनिधित्व मौजूद नहीं है। भारतीय चिकित्सा परिषद को एक राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (National Medical Commission- NMC) से स्थानांतरित किये जाने का प्रस्ताव है लेकिन इस नए संगठन के बाद भी परिदृश्य के बदल जाने की संभावना नज़र नहीं आती।
- NMC अधिनियम 2019 के अंतर्गत मध्य-स्तर के चिकित्सा सेवा प्रदाताओं को प्रशिक्षित किये जाने का वर्तमान में विरोध किया जा रहा है जो इस बात का एक और उदाहरण है कि वर्तमान शक्ति संरचना प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के प्रति कितनी विद्वेषपूर्ण है। इस साक्ष्य की उपस्थिति के बावजूद कि अल्पकालिक पाठ्यक्रमों (2-3 वर्ष का पाठ्यक्रम) के माध्यम से प्रशिक्षित आधुनिक चिकित्सा के पेशेवर (जिन्हें चिकित्सा सहायक/Medical Assistants कह सकते हैं) ग्रामीण आबादी को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने में व्यापक सहायता कर सकते हैं, भारत में ऐसे किसी भी प्रस्ताव का रूढ़िवादी एलोपैथिक समुदाय द्वारा कड़ा विरोध किया जाता है। आयुर्वेद जैसी चिकित्सा पद्धति के चिकित्सकों को आधुनिक चिकित्सा में प्रशिक्षित करने के प्रस्ताव को भी इसी तरह के विरोध का सामना करना पड़ता है।
- ऐसे चिकित्सा सहायकों और गैर-एलोपैथिक चिकित्सकों को हमेशा नीम-हकीम या झोला-छाप और यह कहकर खारिज कर दिया जाता है कि ये ग्रामीण जनता के स्वास्थ्य को खतरे में ही डालेंगे। इस तरह की आलोचना इस तथ्य की अनदेखी करती है कि यू.के. और यू.एस. जैसे देश आधुनिक चिकित्सा में दो वर्षीय पाठ्यक्रमों के माध्यम से चिकित्सक सहायक या सहयोगी बनने के दिये लगातार पैरामेडिक्स और नर्सों को प्रशिक्षित कर रहे हैं।